माना कि तुम हो ,औ तुम्हारी है ग़लतफ़हमी हजूर ,
'होरी' ऐसे ही यहाँ पर आये, कितने ही गए |
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यदि नहीं तुमने उठाया स्वयं और समाज को ,
'होरी तुम्हारी आत्मा जिंदा कहाँ रह पायगी |
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जय करो बेशक करो , पर होश भी तो चाहिए ,
'होरी' ऐसा हो कहीं हम और नीचे गिर गए|
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राज कुमार सचान 'होरी
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