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शनिवार, 26 नवंबर 2011

पापी पेट जो न कराये….?

mushhar बनवासी मुसहरों के जीवन की गरीबी का रथ कैसे चल रहा है, इसकी कहानी अगर उन्ही की जबानी सुने तो सरकार के गरीबी उन्मूलन के तमाम दावों की हवा निकलती नजर आयेगी। गुमनामी के स्याह अन्धेरे में जीवन बिताते-बिताते मुसहर वनवासी चोला ओढ़े समाज की मुख्य धारा से एकदम विरत हो गये हैं। जिसकी वजह से पहाड़ी इलाकों में नक्सली संगठन व पशु तस्कर इनके मुफलिसी और गरीबी का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। जिसको दो वक्त की रोटी कायदे से मयस्सर न हो पाती हो, वह भला कहां तक नैतिकता की सोच रखेगा। बस इसी वजह से ये भुखमरे लोग असामाजिक तत्वों की मोहपाश में आ कर समाज व देश विरोधी कार्य करने पर भी मजबूर हैं। गरीबी उन्मूलन के सारे दावों की पोल तब खुल जाती है जब वनवासी मुसहर जाति पर बरबस निगाह पड़ती है।

 


सुन्दरी देवी 33 बताती है कि ’’ सेखुआ अउर पलाश के पत्ता नाहिं मिलत बा । कट सागौन अउर पलाश के पत्ता से दोना-पत्तल बनउत बाय। हम अउर हमार बचवन दिन भर एही में लगल रहीला ता जाके 30-35 रूपया का काम हो जाला। बस एही में डूबे-उतराये के हवे।’’ रज्जो 40 कहती है ’’ पुरखा-पुरनियां पत्ता बीनत अउर दोना-पत्तल बनावत मर गइलन, हमहूं मर जाब। का करल जाइ, पेट के खातिर कुछ न कुछ त करे के पडबे करी।’’लाल जी 47 ’’ कौनो-कौनो दिन त बाबू चुल्हा में आग ना जलेला। सवाल किया गया क्यों तो जबाब दिया की  जब अनाज-पानी रही तबै न चुल्हा-चउका  होई। ऐ हाल में जे जवन काम कह देवे ला करहीं के पडेला।’’ सनद रहे कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ऐसे हालात ही इन वनवासी लोगों को समाज की मुख्यधारा से काट रही है। कुल मिला कर दलित हितैषी पार्टियों के तमाम चिल्लपों के बावजूद विकास से वंचित आदिम युग में जी रहे मुसहर जाति के लोगों की आवाज नक्कारखानें में तूती की आवाज़ वाली लोकोक्ति ही चरित्रार्थ करती  है। विकास के बड़े-बड़े दावे करने वाली सरकारों के गरीबी उन्मूलन की खातिर न जाने कितनी योजनाएं कागजों में बनी मगर हकीकत में क्रियान्वयन कितना हुआ यह सभी जानतें हैं कुछ ने कुछ ने ंतो वजूद पाने से पहले ही दम तोड़ दिया । यही वजह है कि दो वक्त के रोटी की बन्दोबस्त की खातिर मुसहर जाति की महिलाएं अपने बच्चियों के साथ जंगलो, वनों से पत्ते तोड़ने, बीनने और फिर उससे दोना-पत्तल बनाने में मसरूफ रहती हैं तो पुरूष बच्चों के साथ वनों, जंगलों से लकड़ी बीनने व कटे पेड़ों के जड़ों को चीर कर बाजार में बेचते हैं। पहाड़ी, जंगली व अन्य जगहों पर मुसहर जाति के लोगों की गरीबी व निरक्षर जमात है। झोपड़ीनुमा घरोंदों में गजर-बसर करने वाले इन वनवासी लोगों के पास सुविधाओं का टोटा है। शिक्षा, स्वास्थ, बिजली, पानी जैसे मूलभूत सुविधाओं से इनके गरीबखाने कोसों दूर हैं। इनके पास इनके गरीबी का एकमात्र प्रमाण लाल कार्ड भी मयस्सर नहीं है।
                    बबुआ बोलता ना, के  देहलस तोहके बनबास
                    कवने करनवा तू  अइला बा बनवा
                    कोने-घूमेला भवरवा जइसे मनवा
                    कवने हो नगरिया में अजोरिया नाही भावे
                    दिहलै घरवा से निकास बबुआ बोलता ना।।
जनकवि राम जियावन दास बावला के ये बोल जंगलो, बीहड़ों व बियाबानों में जीवन बिता रहे बनवरसी मुसहर जाति के लोगों पर पूरी तरह फिट बैठतें  है। पापी पेट जो न करा दे। बस यही वजह है कि मुसहर जाति के लोग वृक्षों के पत्तियों के सहारे जिन्दगी का तवील सफर गुमनामी में काट कर शमषान की राह कूच कर जाते हैं। जिन हाथों में देश का मुस्तकबिल है, वे हाथ वृक्षों की पत्तियां बटोर कर दोना-पत्तल के सहारे परिवार का पेट जरूर भर दे रहे हैं मगर खुद जी तोड़ मेहनत में मुलव्विस हैं।

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