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बुधवार, 25 जून 2014

फ़ेसबुक के विद्वान(भाग-२)

                   फ़ेसबुक के विद्वान ( भाग २)
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            एक युग था श्रुति काल । सब कुछ सुना सुनाया --- एक दूसरे से सुनते और एक दूसरे को सुनाते चले गए और देखते देखते मनु सतरूपा के वंशज , आदम - हौवा के उत्तराधिकारी जंगलों में न फिर कर ; घर बसाने लगे ।
            सुनने सुनाने से अधिक जब लोग लिखने के विद्वान बन गये तो भोज पत्र खोजा और पीढ़ी दर पीढ़ी उसी में लिख मारा । अब यह काल भी जाना था सो चला गया । पुस्तकों का युग आ गया । लेकिन पुस्तक और पुस्तक वाले तो दौड़ में पिछड़ गये books वाले आगे निकल गये । हिन्दी के बच्चों से ले कर बुड्ढों तक पुस्तकें कम लिखते पढ़ते हैं books लिखने पढ़ने में वे भी आगे निकल गये ।भला हो गोरों का हमें आगे बढ़ाया , हम कुछ बन पाये या नहीं , हाँ "बुक वर्म" बनना था सो बन गये ।
               प्रिंट से एलेक्ट्रानिक युग आया और अब आ गया दोनों का मिश्र युग । हम खिचड़ी का त्यौहार मनाने वाले लोग हिन्दी अंग्रेज़ी की खिचड़ी पका भी रहे हैं और मज़े से हिंगलिश नाम से खा भी रहे हैं । दुनिया ने हमसे" शून्य" का ज्ञान ही नहीं लिया बल्कि हर चीज़ की खिचड़ी बनाने का हुनर भी हमसे लिया ।
                अब प्रिंट और एलेक्ट्रानिक के मिल कर खिचड़ी बनने की प्रक्रिया में "फ़ेसबुक" जैसी अनेक रेसिपी की उत्पत्ति तो होनी थी सो हो गयी ।
         जैसे कभी हमारे पूर्ववज विद्वान भोजपत्रों की तरफ़ दौड़े थे , कभी छापेखानों की तरफ़ तो कभी पुस्तकों , बुकों की ओर  वैसे ही दौड़े एलेक्ट्रानिक चैनलों की ओर । अब क्या मजाल कोई चैनेल बहस , परिचर्चा ,डिबेट आयोजित करें और कोई विद्वाननुमा साथी उसमें न हो ।
         चैनेल वाले जान  भी गये और मान भी गये कि उन्हें अगर चैनेल चलाना है तो इन विद्वानों को सम्मान देना ही पड़ेगा , सो देने लगे --- अब वह सम्मान चाहे चैनेल से घर तक गाड़ी भेजने का हो या अत्यंत हल्का लिफ़ाफ़ा देने का हो , सब चलने लगा , विद्वान वही जो बिना पैसे से भी ख़ुश हो जाय सो वे ख़ुश होने लगे , विद्वान जो ठहरे ।
               न्यूज़ चैनेल ही क्यों ? मनोरंजन, फ़िल्म वाले भी तो लिख्खाड़ विद्वान ---लेखक, गीतकार, स्क्रिप्ट राइटर,कथाकार कहाँ से लाते  ? उन्हें भी हमारी बिरादरी वालों ने सहारा दिया ।
         खिचड़ी वैसे भी सुपाच्य होती है । खिचड़ी वर्ग की रेसिपी फ़ेसबुक तो इतनी सुपाच्य और शीरी निकली कि इसके खाने से लोगों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य एकदम से सुधर गया , उनके अच्छे दिन तुरन्त आ गये । जिसने इसका स्वाद नहीं चखा वह पिछड़ा घोषित कर दिया गया ।
                     जब पहली बार मुझसे किसी ने पूछा था कि आप फ़ेसबुक में हैं ? तो भगवान झूठ न बुलवाये मैंने हाँ कह दिया था जबकि मैंने नाम तक नहीं सुना था इस बुक का । पहले सोचा कि पूछ लूँ कौन लेखक हैइस बुक का ?कब मार्केट में आई ? पर मेरी हिम्मत न पड़ी  , विद्वान जो ठहरा । कहीं उसको मेरी विद्वता पर शक हो जाता तो ज़िन्दगी भर की मेरी विद्वताई मिट्टी में मिल जाती ।।
            बहुत दिनों बाद पता चला कि यह कितनी उम्दा बुक है ! इसमें तो फ़ेस को ही बुक बना दिया गया । जितना सुन्दर फ़ेस उतनी सुन्दर बुक । क़ीमती चेहरा क़ीमती बुक । कई समझदार मित्रों ( याद रहे यहाँ कोई शत्रु नहीं है ) ने कुछ ज़्यादा ही समझदारी दिखाई और "गणिका" "रम्भा" टाइप के कमनीय फ़ेस लगा कर ,नारी नामधारी आई डी बना कर सच्चे फेसबुकिये बन गये । कमाल देखिये कि फेसबुकी विद्वान भी इनकी आई डी में ऐसे रमें जैसे मधुमक्खी शहद के छत्ते में ।
           ऐसे फेसों की बुकों के लाइक तो इतनी भारी संख्या में आते कि अनेकों बार गिनीज़ बुक वालों और फ़ेस बुक वालों का सर्वर ही क्रैश कर गया । कहते हैं विद्वान वही जो कला का पारखी हो सो कला के इन पारखियों नें ऐसे फेसों पर दाव लगाये और उनके कमेंट बाक्स में घुस घुस कर उनको अपने से बड़ा विद्वान घोषित कर दिया । कई विद्वान तो इतने रच बस गये कि वे इन चेहरों के कमेंट बाक्स में ही स्थाई रूप से रहने लगे । उनको कमेंट बाक्स के बाहर पुरुषार्थ दिखता ही नहीं था । कई तो घर बार, खाना पीना  सब छोड़ बस फ़ेसबुक में पड़े रहने लगे ।
            कुछ ने तो रात रात भर चैट किया । मैंने चैट को परिभाषित किया कि जब मन उचाट रहने लगे फिर भी चटकारे लेने के लिये मन बल्लियों उछले तो हवा में शब्द संवाद को चैटिंग कहते हैं ।चाटने की लत ऐसी लगी कि सोसल समाज का चैटिंग बड़ा रोग  बन गया । विद्वानों ने भी चैटिंग अपना ली , कई तो इस श्रेणी में युवकों, युवतियों से भी बाज़ी मार ले गये ।
          फ़ेसबुक के ऐसे परम ज्ञानी चैटियों से तो मजनू, फ़रहाद,हीर तक बुरी तरह जलने लगे , ईर्श्या करने लगे । उनका कहना था कि वे तो बाक़ायदा चेहरे देख कर , मिल कर ,बैठ कर दाँव लगाते थे लेकिन ये हमारे उत्तराधिकारी तो हमसे आगे निकल गये । बस कल्पना में ही दाँव । हवा में ही इश्क़ ।
            एक घोड़ा , एक घोड़ी फ़ेसबुक में वर्षों से चैटिया रहे थे ।जीने मरने की क़समें खाते खाते आख़िर एक दिन एक स्थान पर मिलने पहुँच गये । पहली बार सामने पड़ें  तो देखा कि घोड़ी तो घोड़ी थी पर घोड़ा  घोड़ा न हो कर खच्चर था वह भी पुरानी पीढ़ी का । मामला पुलिस तक पहुँचा । अब पुलिस में क्या हुआ हमसे न कबुलवाइये । आप सब हमसे अच्छी तरह जानते हैं , बड़े विद्वान जो हैं ।
                  वैसे सच्ची बात तो यही है कि एक युवा ने युवाओं के लिये ही यह बुक लिखी और छापी थी , मगर ये बुड्ढे,खूसट मानते कहाँ हैं यहाँ भी अपने पुराने औज़ारों के साथ क़लम ,दवाअत लेकर घुस लिये । ताल ठोक कर कहने लगे ----
              ' कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क़ का सिलसिला नहीं होता ?
              आम तब तक मज़ा नहीं देता ,जब तक पिलपिला नहीं होता ।'
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            ' कौन कहता है बुड्ढे को  इश्क़ का हक़ नहीं होता ?
               यह और बात है  कि उस पर किसी को शक नहीं होता ।'
                          फ़ेसबुक में जो काव्य प्रतिभा के विद्वान हैं उनसे तो फ़ेसबुक को बस भगवान ही बचाये । ज़िन्दगी में कभी एक चिट्ठी तक पोस्ट न की होगी पर इतनी कवितायें पोस्ट कर डालते हैं कि कविता भी उनके हाथ में छटपटाती है और पीछा छुड़ाने के लिये ख़ुद ही पोस्ट हो जाती है और फ़ेसबुक काव्य जगत की अमर रचना बन जाती है । नित नई काव्य प्रतिभाओं का आगमन और नित नवीन कविताओं का सृजन तो फ़ेसबुक की आम घटना है । समीक्षक फ़ेसबुक काव्यशास्त्र पर क़लम चलाने की हिम्मत तक नहीं उठा पा रहे हैं । हाँ , कुछ अच्छे फेसों की उन्हें भी तलाश है ,मिलते ही फेसबुकीय समीक्षायें आने लगेगी ।
            {क्रमश: }
                                     राज कुमार सचान "होरी"
email--rajkumarsachanhori@gmail.com  चलित भाष --9958788699      दिनांक 21 जून 14


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