फ़ेसबुक के विद्वान (भाग १ )
--------------------------------राज कुमार सचान "होरी"
लेख के आरम्भ में ही मैं स्पष्ट कर दूँ कि फ़ेसबुक के विद्वान इसे व्यंगलेख कृपया न समझें और दूसरी महत्वपूर्ण सूचना कि कोई भी वास्तविक विद्वान ख़ुद को इस लेख का सुपात्र क़तई न माने ।
फ़ेसबुक आभासी दुनिया है, काल्पनिक मित्रता है तो फिर इतने विद्वान फेसबुकीय समाज में ! मैं क्यों दावा करूँ कि मैं वास्तविक हूँ ----सोशल एक्टिविष्ट अथवा मित्र । आप मान सकने के लिये पूर्ण सक्षम और समझदार हैं कि मैं न तो राज कुमार सचान होरी हूँ और न ही जो फ़ेसबुक आई डी का चित्र है वह ही मेरा है ।
हो सकता है मैं जो हूँ वह हूँ या मैं जो हूँ वह नहीं हूँ या मैं जो नहीं हूँ वह हूँ या मैं जो नहीं हूँ वह नहीं हूँ । अब आप सोचते रहें कि मैं वास्तव में हूँ क्या ? हूँ कैसा ? और हूँ कितना ? आप स्वतंत्र हैं कुछ भी सोचने के लिये ,कुछ भी करने के लिये मैं कौन होता हूँ मना करने वाला । यही आपकी शक्ति है जो सरकारों तक को हिला देती है । यहाँ तक कि जिन्हें यहाँ मित्र कहते है उनको धूल चटा सकती है , उनको दिन में तारे दिखा सकती है
फ़ेसबुक या इसी तरह की आभासी बुकों में कहीं भी शत्रु नाम का पात्र नहीं है । ये ऐसी दुनियाँ हैं जहाँ शत्रु भी मित्र ही होते हैं । यहाँ या तो मित्र बनाते हैं या नहीं बनाते अथवा बना कर अनफ्रेंड (मित्र) कर देते हैं । शत्रु का कन्सेप्ट ही नहीं । हाँ ,किसी मित्र की गतिविधियों से जब आप बहुत सुखी हो जाते हैं या अतिशय प्रभावित हो जाते हैं अथवा आनन्दित हो जाते हैं तब आप उसे "ब्लाक" भर कर देते हैं ,परन्तु उसे तब भी शत्रु नहीं कहते । यही तो है आज का स्वर्ग कोई शत्रु नहीं सब मित्र ही मित्र ।
अनफ्रेंड और ब्लाक्ड फ़्रेंड भी नयी आई डी के साथ , नई पहचान के साथ उतर आते हैं और फिर चालू हो जाते हैं । गीता ने इसी के लिये बहुत पहले ही कह दिया था ----वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोपराणि ।तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संययाति नवानि देही ।
बार बार ,लगातार यहाँ आत्माओं का अवतार होता है । बल्कि इसकी कल्पना तो गीता ने भी नहीं की थी उस दुनिया में जितनी आत्माये उतने शरीर और वह भी एक शरीर को त्यागना पड़ेगा । यहाँ तो हम वैज्ञानिक और धार्मिक रूप से प्रगति कर गये है एक एक आत्मा एक साथ अनेकों शरीर धारण कर सकती है ,वह भी बिना मरे ही । यहाँ यह भी बन्धन नहीं कि नर नर रहेगा , नारी नारी रहेगी । पुल्लिंग स्त्रीलिंग या उभयलिंग कुछ भी कभी भी एक साथ । लोग कहते थे कि अच्छे दिन आने वाले हैं उन्हें पता नहीं ये तो न जाने कब आ गये थे ---जब से फ़ेसबुक जैसी महान बुकों का अवतरण हुआ था तभी से ।
हे मेरे फेसबुकीय विद्वानों ! धैर्य रखो अगले अंक में आपके निकट पहुँचूँगा तब तक के लिये शुभ कामना । खुदा हाफ़िज़ good night .
राज कुमार सचान "होरी"
Email -- rajkumarsachanhori@gmail.com चलित भाष । 9958788699
--------------------------------राज कुमार सचान "होरी"
लेख के आरम्भ में ही मैं स्पष्ट कर दूँ कि फ़ेसबुक के विद्वान इसे व्यंगलेख कृपया न समझें और दूसरी महत्वपूर्ण सूचना कि कोई भी वास्तविक विद्वान ख़ुद को इस लेख का सुपात्र क़तई न माने ।
फ़ेसबुक आभासी दुनिया है, काल्पनिक मित्रता है तो फिर इतने विद्वान फेसबुकीय समाज में ! मैं क्यों दावा करूँ कि मैं वास्तविक हूँ ----सोशल एक्टिविष्ट अथवा मित्र । आप मान सकने के लिये पूर्ण सक्षम और समझदार हैं कि मैं न तो राज कुमार सचान होरी हूँ और न ही जो फ़ेसबुक आई डी का चित्र है वह ही मेरा है ।
हो सकता है मैं जो हूँ वह हूँ या मैं जो हूँ वह नहीं हूँ या मैं जो नहीं हूँ वह हूँ या मैं जो नहीं हूँ वह नहीं हूँ । अब आप सोचते रहें कि मैं वास्तव में हूँ क्या ? हूँ कैसा ? और हूँ कितना ? आप स्वतंत्र हैं कुछ भी सोचने के लिये ,कुछ भी करने के लिये मैं कौन होता हूँ मना करने वाला । यही आपकी शक्ति है जो सरकारों तक को हिला देती है । यहाँ तक कि जिन्हें यहाँ मित्र कहते है उनको धूल चटा सकती है , उनको दिन में तारे दिखा सकती है
फ़ेसबुक या इसी तरह की आभासी बुकों में कहीं भी शत्रु नाम का पात्र नहीं है । ये ऐसी दुनियाँ हैं जहाँ शत्रु भी मित्र ही होते हैं । यहाँ या तो मित्र बनाते हैं या नहीं बनाते अथवा बना कर अनफ्रेंड (मित्र) कर देते हैं । शत्रु का कन्सेप्ट ही नहीं । हाँ ,किसी मित्र की गतिविधियों से जब आप बहुत सुखी हो जाते हैं या अतिशय प्रभावित हो जाते हैं अथवा आनन्दित हो जाते हैं तब आप उसे "ब्लाक" भर कर देते हैं ,परन्तु उसे तब भी शत्रु नहीं कहते । यही तो है आज का स्वर्ग कोई शत्रु नहीं सब मित्र ही मित्र ।
अनफ्रेंड और ब्लाक्ड फ़्रेंड भी नयी आई डी के साथ , नई पहचान के साथ उतर आते हैं और फिर चालू हो जाते हैं । गीता ने इसी के लिये बहुत पहले ही कह दिया था ----वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोपराणि ।तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संययाति नवानि देही ।
बार बार ,लगातार यहाँ आत्माओं का अवतार होता है । बल्कि इसकी कल्पना तो गीता ने भी नहीं की थी उस दुनिया में जितनी आत्माये उतने शरीर और वह भी एक शरीर को त्यागना पड़ेगा । यहाँ तो हम वैज्ञानिक और धार्मिक रूप से प्रगति कर गये है एक एक आत्मा एक साथ अनेकों शरीर धारण कर सकती है ,वह भी बिना मरे ही । यहाँ यह भी बन्धन नहीं कि नर नर रहेगा , नारी नारी रहेगी । पुल्लिंग स्त्रीलिंग या उभयलिंग कुछ भी कभी भी एक साथ । लोग कहते थे कि अच्छे दिन आने वाले हैं उन्हें पता नहीं ये तो न जाने कब आ गये थे ---जब से फ़ेसबुक जैसी महान बुकों का अवतरण हुआ था तभी से ।
हे मेरे फेसबुकीय विद्वानों ! धैर्य रखो अगले अंक में आपके निकट पहुँचूँगा तब तक के लिये शुभ कामना । खुदा हाफ़िज़ good night .
राज कुमार सचान "होरी"
Email -- rajkumarsachanhori@gmail.com चलित भाष । 9958788699