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मंगलवार, 7 जून 2016

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From: Rizwan Chanchal <redfile.news@gmail.com>
Date: 7 June 2016 at 15:15:30 IST
To: horirajkumar@gmail.com
Subject: article for magzine

स्टोरी no -1

लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी आखिर है कहां ? लेख -रिजवान चंचल

इन दिनों राजनीतिक दलों के सारे खास आदमी  अपने को आम आदमी के हक हुकूक
के लिए  क़ुरबानी देने का ढिढोरा पीटते व खुद को  विकास का मसीहा बताते
हुए आम आदमी को एक बार फिर बरगलाने व ठगने को आतुर हैं, चूंकि उत्तर
प्रदेश में विधान सभा  चुनाव करीब हैं ऐसे में वातानुकूलित महलों व
बंगलों से बाहर आये खासोआम बनकर आम आदमी की बात करने वाले ये वही खास
आदमी है जो आम आदमी के बीच सिर्फ और सिर्फ चुनावी वक्त में ही आमआदमी के
बीच दिखते हैं ।
 आजादी के 68 सालों बाद भी  समाज में आम आदमी की भूमिका अभी भी वहीं तक
है जहां से खास आदमी की भूमिका शुरू होती है। यह खास आदमी होता तो आम
आदमी जैसा ही है, किंतु उसका 'शाही रूतबा' उसे आम से खास बना देता है।
मैं इस अवधारणा को नहीं मानता कि देश प्रदेश आम आदमी के सहारे चलता है मै
तो जो देखता व समझता आ रहा हूँ उसका लब्बोलुआब मेरी अवधारणा में यह है की
देश प्रदेश खास आदमी के  हिसाब से  चलता है क्यों कि  खास आदमी बेहद
ताकतवर होता है। आम आदमी खास आदमी के सामने कहीं नहीं ठहरता, या यूं कहें
कि खास के द्वारा आम को कहीं  ठहरने ही  नहीं दिया जाता। प्रायः आम आदमी
खास आदमी की शर्तों पर ही  जीवन यापन करता नज़र आता है। आज जो देखने में
आता है उससे तो यही लगता है की समाज में चलती उसी की है जिसके पास सत्ता
की ताकत या कुर्सी होती है। खास आदमी आम आदमी से चीजें 'लेता' नहीं
'छीनता' है ठीक हिटलर की तरह । यह भी कड़ुआ सच ही है की न देने पर उसका
वही हाल किया जाता है जो एक मुजरिम के साथ पुलिस करती है, उदाहरणार्थ
दिल्ली में देखिये छुटभैये न जाने कितने जेल पहुंचा दिए गए पुलिस द्वारा
पीटे भी गए लेकिन बडके सदन के अंदर डांस कर रहे हैं .  हिटलर को हिटलर
बनाने में बेशक आम आदमी की भूमिका रही थी, लेकिन हिटलर खास बनते ही उनका
विरोधी हो गया था। सत्ता और कुर्सी का नशा कुछ भी करवा सकता है। सत्ता
में 'जज्बात' नहीं 'जोर-जबरदस्ती' मायने रखती है। यह सभी जानतें कि
राजनीति में आम आदमी की भूमिका बड़ी और खास होती है क्यों कि देश व
प्रदेश की सत्ताओं को बदलने में आम आदमी ही मददगार साबित होता रहा है।
 यह कहना उचित ही  होगा की  राजनीति और राजनेताओं को आम आदमी की याद ही
तब आती है जब उसे उसका वोट चाहिए होता है। राजनीति और नेताओं का भाग्य
लिखने का अधिकार तो  आम आदमी को है  मगर उन्हें जीना  खास लोगों की
शर्तों पर ही है यह भी एक विडम्बना ही है कि आम से खास हुआ आदमी जब नेता
बनता है तब वह हमारे बीच का नहीं बल्कि सत्ता का आदमी हो जाता है। उसके
सरोकार सत्ता की प्रतिष्ठा तक आकर ठहर जाते हैं। पांच साल में एक ही बार
उसे आम आदमी की याद आती है। इस याद में खास आदमी के आम आदमी से अपने
'स्वार्थ निहित' होते हैं।
 एक बात मेरे समझ में नहीं आती की जब देश की सरकारें देश के नेता हर कोई
आम आदमी के लिए फिक्रमंद है तो फिर  आम आदमी इतना बेजार क्यों है? क्यों
उसे दिनभर दो जून की रोटी के लिए हाड़-तोड़ संघर्ष करना पड़ता है? क्यों
उसके पेट भूखे और सिर नंगे रहते हैं? क्यों वो कुपोषण से मर जाता
है?क्यों वो बेरोजगार रह तड़पता  है ? क्यों उसके कपड़े फटे रहते हैं ?
क्यों उसकी बीमारी का इलाज नहीं हो पाता ? क्यों वो अपने बच्चों को अच्छे
स्कूलों में नहीं पढ़ा पाता? क्यों वो लोकतंत्र का सशक्त माध्यम होकर भी
बेजारा और बेगाना ही बना रहता है? क्यों सत्ता की ताकत उसे हमेसा रौंदती
रहती है? क्यों उसे न्यायालयों से न्याय नहीं मिल पाता ? दरअसल, सत्ता के
आकाओं के लिए आम आदमी महज एक बहाना है खुद को उसका रहनुमा घोषित करने के
लिए। एक बड़ा सवाल है कि लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी आखिर है कहां
?

  समाज में आम आदमी की भूमिका वहीं तक है जहां से खास आदमी की भूमिका
शुरू होती है। यह खास आदमी होता तो आम आदमी जैसा ही है, किंतु उसका 'शाही
रूतबा' उसे आम से खास बना देता है। मैं इस अवधारणा को नहीं मानता कि देश
आम आदमी के सहारे चलता है मै तो जो देखता व समझता आ रहा हूँ उसका
लब्बोलुआब मेरी अवधारणा में यह है की  देश प्रदेश मात्र खास आदमी के
हिसाब से  चलता है क्यों कि  खास आदमी बेहद ताकतवर होता है हाँ यह जरूर
है की जो इनका संरक्षण पा जाते हैं वो भी ताकतवर ही बनते हैं वो चाहे
बाबा रामदेव हों या अभी हाल में घटित हुई मथुरा काण्ड के नायक राम वृक्ष
। आम आदमी खास आदमी के सामने कहीं नहीं ठहरता या यूं कहें कि खास के
द्वारा आम को कहीं  ठहरने ही नहीं दिया जाता। प्रायः आम आदमी खास आदमी की
शर्तों पर ही  जीवन यापन करता नज़र आता है। आज जो देखने में आता है उससे
तो यही लगता है की समाज में चलती उसी की है जिसके पास सत्ता की ताकत या
कुर्सी होती है। खास आदमी आम आदमी से चीजें 'लेता' नहीं बल्कि 'छीनता' है
हिटलर की भांति, न देने पर उसका वही हाल किया जाता है जो एक मुजरिम के
साथ किया जाता है उदाहरणार्थ दिल्ली में देखिये मामूली आरोपों में
छुटभैये न जाने कितने जेल पहुंचा दिए गए पुलिस द्वारा पीटे भी गए लेकिन
बडके बड़े-बड़े आरोपों के बावजूद सदन के अंदर  डांस कर रहे हैं.  हिटलर को
हिटलर बनाने में बेशक आम आदमी की भूमिका रही थी, लेकिन हिटलर खास बनते ही
उनका विरोधी हो गया था। सत्ता और कुर्सी का नशा कुछ भी करवा सकता है।
सत्ता में 'जज्बात' नहीं'जोर-जबरदस्ती' मायने रखती है। सब जानते हैं
राजनीति में आम आदमी की भूमिका तो बड़ी होती है चूँकि सत्ताओं को बनाने
और बदलने में आम आदमी ही मददगार साबित होता रहा है लेकिन उनका महत्व कुछ
समय तक ही होता है वो चुनाव के दरम्यान ही महत्व पाते हैं इसके बाद तो
जैसे इन्हें भुला दिया जाता है ।
 यह कहना उचित ही  होगा की  राजनीति और राजनेताओं को आम आदमी की याद  ही
तब आती है जब उसे उसका वोट चाहिए होता है। राजनीति और नेताओं का भाग्य
लिखने का अधिकार तो  आम आदमी को है  मगर उन्हें जीना  खास लोगों की
शर्तों पर ही है यह भी एक विडम्बना ही है की आम से खास हुआ आदमी जब नेता
बनता है तब वह हमारे बीच का नहीं सत्ता का आदमी हो जाता है। उसके सरोकार
सत्ता की प्रतिष्ठा तक आकर ठहर जाते हैं। पांच साल में एक ही बार उसे आम
आदमी की याद आती है। इस याद में खास आदमी के आम आदमी से  'स्वार्थ निहित'
होते हैं।  एक बात मेरे समझ में नहीं आती की  जब देश प्रदेश की सरकारें
और हर दल का नेता आम आदमी के लिए फिक्रमंद है तो फिर  आम आदमी इतना बेजार
क्यों है? क्यों उसे दिनभर दो जून की रोटी के लिए हाड़-तोड़ संघर्ष करना
पड़ता है? क्यों उसके पेट भूखे और सिर नंगे रहते हैं? क्यों वो कुपोषण से
मर जाता है ? क्यों वो बेरोजगार रहता है ? क्यों उसके कपड़े फटे और
चूल्हे ठंढे रहते हैं ? क्यों उसकी बीमारी का इलाज समय से नहीं हो पाता?
क्यों वो अपने बच्चों को महंगे स्कूलों में नहीं पढ़ा पाता? क्यों वो
लोकतंत्र का सशक्त  माध्यम होकर भी बेजारा और बेगाना ही बना रहता है?
क्यों सत्ता की ताकत उसे हमेसा रौंदती रहती है? क्यों उसे न्यायालयों से
न्याय नहीं मिल पाता ? दरअसल, सत्ता के आकाओं के लिए आम आदमी महज एक
बहाना है खुद को उसका रहनुमा घोषित करने के लिए। एक बड़ा सवाल है कि
लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी आखिर है कहां ?
स्टोरी no -२
देश अमीर है और नागरिक गरीब, आखिर क्यों ?.............रिज़वान चंचल
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आज भारतीय परिप्रेक्ष्य में जो कुछ हो रहा है उसमें कुछ भी आशाजनक नहीं
कहा जा सकता 'वाक फ्री फाउंडेशन' की तरफ से बीते मंगलवार को जारी 2016
वैश्विक गुलामी सूचकांक के अनुसार भारत में बंधुआ मजदूरी, वेश्यावृत्ति
और भीख जैसी आधुनिक गुलामी के शिकंजे में एक करोड़ 83 लाख 50 हजार लोग
जकड़े हुए बताये गए और इस तरह दुनिया में आधुनिक गुलामी से पीड़ितों की
सबसे ज्यादा संख्या भारत में पाई गई जो हर  भारतीय के दिल को झकझोरने
वाली बात है   और  नेतागण अपनी कथित उपलब्धि के विवरणी के साथ टी बी
चैनलों, अखबारों, व सोशल मीडिया में ऐसे छाए हुए हैं जैसे की देश प्रदेश
को पेरिस बनाये दे रहें हैं सब के सब जनता को हसीन सपने दिखा एन-केन
प्रकारेण सत्ता की कुर्सी पाने की जुगत में हैं ।
सभी अपने को दूध का धुला बता रहे हैं हर  राजनीतिक दल बार बार ये जनता के
बीच भाषण देते नज़र आतें हैं  कि हमारे दल में दागी लोगों के लिए जगह नहीं
लेकिन सच्चाई यह है कि राजनीति में अभी भी अपराधियों की खुली इंट्री जारी
है  इधर हसीन सपनो से इतर जो बुद्धिजीवी व जागरूक मतदाता हैं वो  2016
वैश्विक गुलामी सूचकांक के अनुसार भारत में बंधुआ मजदूरी, वेश्यावृत्ति
और भीख जैसी आधुनिक गुलामी के शिकंजे में एक करोड़ 83 लाख 50 हजार लोगों
के जकड़े होने और चारों तरफ फैले कूड़े के ढेर, बढ़ती महंगाई, इंसानियत की
दीन हीन होती स्थिती तथा विलुप्त होती संवदेना को द्रष्टिगोचर कर सवाल कर
रहे  है कि ये जो मीडिया में अपना ढिंढोरा स्वयं पीट रहे हैं वो आखिर इन
तमाम जटिल समस्यायों का देश के आज़ादी के 68 सालों बाद भी समाधान क्यों
नहीं कर पा रहें हैं ?
विचारणीय तो यह है की पहले न तो इतनी बड़ी संख्या लोग बंधुआ मजदूरी,
वेश्यावृत्ति और भीख जैसी आधुनिक गुलामी के शिकंजे में जकड़े थे और न ही
आये दिन किसान आत्महत्या कर रहे थे, न ही लोग भूंख और गरीबी से तंग होकर
आये दिन आत्महत्याएं ही  कर रहे थे ! पिछले कुछ  सालों से इस तरह की
घटनाओं में काफी इजाफा हुआ है आये दिन किसानो द्वारा आत्महत्या की घटनाएं
मीडिया में हम आप देखते व सुनते चले आ रहे हैं ! टी बी चैनलों में पल पल
आते विज्ञापनों में ये देश संवर रहा है, उम्मीदों का प्रदेश, झलक रहा है
लेकिन सवाल यह उठता है की देश संवर रहा है तो किसान क्यों मर रहा
है,महंगाई डायन गरीबों को क्यों निगले जा रही है ? इसका मतलब साफ़ है की
बात तो संवरने की की जा रही है और धरातल पर हो कुछ और रहा है जिसके चलते
आये दिन ऐसी घटनाये सामने आ रही हैं ! जहाँ तक बात राजनीति के अपराधीकरण
और अपराधियों के राजनीतिकरण की है उसमे भी कोई कमी नहीं आयी है वर्तमान
परिद्रश्य में लोकतन्त्र की जो सामन्ती संस्कृति उभर रही है और दिखाई दे
रही है  उससे तो यही द्रश्यमान होता है की  जनता के चुने हुये प्रतिनिधि
और सरकारी अधिकारी व कर्मचारी अपने दायित्वों को ठेंगा दिखा न केवल
राजसत्ता का ही बल्कि व्यक्तिगत- पारिवारिक स्तर पर भी भरपूर मजा लूटने
में अभी भी मदांध हैं ।
राजनीतिज्ञ एक बारगी वोटों की वैतरणी पार कर ले और सरकारी कर्मचारी एक
बार किसी तरह शीर्ष पद पर नियुक्ति भर पा जाएं फिर तो वे जैसे जनता के और
देश के मालिक ही  बन जाते हैं, वी.आई.पी. बनकर विशेष सुख-सुविधाओं के
हकदार, कानून से ऊपर और जनता से अलग विशिष्ट वर्ग के व्यक्ति बनते ही
जैसे सारा प्रशासन प्राथमिक रूप से उनकी सुख-सुविधाओं के लिए ही बन जाता
है । इसी विशिष्ट वर्ग मनोभावना के तहत मुफ्तखोरी करने, शासन का
व्यक्तिगत-पारिवारिक सुविधाओं के लिए प्रयोग करने, अनैतिक सिफारिश करने ,
नौकरी दिलाने , ट्रांसफर पोस्टिंग कराने ,भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देने आदि
के रास्ते अपनाने की जो प्रवृत्ति शुरू होती है वह दल के सिद्धांतों और
मानवीयता को दरकिनार कर भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कमीशन खोरी , धोखाधडी
करने आदि के चक्रव्यूह में इतना ज्यादा उलझा देती है की वाह  न केवल
राजनीति को सफेदपोश अपराधियों का जमावड़ा बना देती है बल्कि अपराधियों को
संरक्षण दे गरीबों के हक भी मरवा देती है, जिन योजनाओं का लाभ गरीबों को
मिलना चाहिए उससे गरीब और पात्रता रखने वाले लोग वंचित रह जाते हैं लेकिन
विज्ञापन में योजना गरीबों के हितार्थ ही नज़र आती है ।
कागजों में कुछ और धरातल पर कुछ और की इस परिपाटी के चलते ही आजादी के 68
सालों बाद भी न तो गरीबी मिट सकी और न ही अन्नदाता किसान खुशहाल हो सका !
जनता के सेवक नेतागण और सरकारी अफसरों   के तालमेल से स्वान्तः सुखाय की
भावना के चलते सरकारी कामों में ईमानदारी, प्रतिबद्धता और जनता के प्रति
लगाव  अपवाद स्वरूप ही अपवाद स्वरूप ही रहा कुल मिलाकर भ्रष्टाचार और
राजनीति में अपराधीकरण की बीमारी से निपटने के लिए जो नीतिगत खामियां और
प्रशासनिक लापरवाही है, उससे निजात पाने का कोई सार्थक संघर्ष जनता
[मतदाताओं] के बीच कभी दिखा ही नहीं, यही कारण है की जनता बेहाल रही और
ये खुशहाल होते चले गए हालात यह हुए के मीडिया में ऐसी ख़बरें भी
सुर्खियाँ बनी जिसमे  मामूली बाबू भी करोड़ों की अकूत सम्पति का मालिक
पाया गया, नेताओं और उच्च अधिकारियों की तो बात ही छोडिये !
ऐसा भी नहीं  है की हर नेता और हर अधिकारी भ्रष्ट ही है लेकिन ऐसे लोगों
की संख्या अपेक्षाकृत भ्रष्ट लोगों से कम ही है तभी तो आस्ट्रेलिया
आधारित मानवाधिकर समूह 'वाक फ्री फाउंडेशन' की तरफ से मंगलवार को जारी
2016 वैश्विक गुलामी सूचकांक के अनुसार भारत में बंधुआ मजदूरी,
वेश्यावृत्ति और भीख जैसी आधुनिक गुलामी के शिकंजे में एक करोड़ 83 लाख 50
हजार लोग जकड़े हुए बताये गए  आंकड़े कह रहे हैं की  दुनिया में आधुनिक
गुलामी से पीड़ितों की सबसे ज्यादा संख्या भारत में ही है।वर्ष 2014 की
रिपोर्ट में भारत में आधुनिक गुलामी में जकड़े लोगों की तादाद एक करोड़ 43
लाख बताई गई थी। आंकड़ों की माने तो संख्या में इजाफा ही हुआ है !
गौर तलब तो यह है की भारतीय  लोगों की कुल सम्पति 5.200 अरब डालर होने
के चलते यह देश दुनिया के 10 सर्वाधिक धनवान देश की सूची में आ गया है और
वैश्विक गुलामी सूचकांक में फिर भी हम  सबसे ऊपर हैं कहने का तात्पर्य यह
की देश अमीर लेकिन नागरिक गरीब आखिर क्यों ? लिहाज़ा जब तक नीतियों मे
सुधार नहीं आता और लोग अपने कर्तव्यों का सम्यक् अनुपालन नहीं करते तब तक
हमारे सामने सिर्फ विज्ञापन की चमक दमक ,तरह तरह के नारे' कोरे आश्वासन ,
हसीन सपने ही होंगें और हम कमजोर होते चले जायेंगें  ! ऐसा भी नहीं हैं
की गली-मोहल्ले, नगर-ग्राम के लोग इस  स्थित से चिन्तित नहीं हैं लोग
चिंतित तो हैं पर जागरूक नहीं हैं आओ जरा सोचें की आखिर इसके लिये
जिम्मेदार है कौन ...?
क्या आपने सोचा था की घोटाले पर घोटाले ही इस देश की नियति बन जायेंगे
क्या आपने सोचा था कि संविधान द्वारा सुनिश्चित धर्मनिरपेक्षता एक दिन
साम्प्रदायिकता एवं जातिवाद का शिकार हो बोट बैंक का माध्यम बन जायेगी ?
क्या आपने सोचा था कि गांधी, नेहरू, पटेल और मौलाना आजाद के बाद
राजनेताओं मे कोई नेहरू, पटेल, अथवा मौलाना आजाद नहीं उभर पायेगा ? कहने
का तात्पर्य यह की स्वाधीनता के पश्चात् भारतीयों  की जो आकांक्षाएं एवं
सपने थे वह पूर्णरूपेण साकार होने के बजाय टूटते व बिखरते चले गये ।
आंकड़े गवाही दे रहें हैं की वर्तमान भारत की परिस्थितियाँ अत्यन्त जटिल
एवं विकट रूप धारण कर चुकी हैं । वर्तमान परिवेस पर विचार करने पर लगता
है कि जिस प्रकार की समरसता, परस्पर भाईचारे का रिश्ता हम सब के बीच था,
उसे भी हम सबने  और द्रढ़ करने के बज़ाय कमजोर ही किया है, समाज जात-पांत
के नाम पर छिन्न-भिन्न होने को विवश है । वजह है राजनीतिक स्वार्थ साधने
के लिए जात-पांत पर बल, यानी मूल्यों की राजनीति पर लोगों का विश्वास
नहीं रह गया है । नेताओं का  लक्ष्य तो येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल
करना ही मात्र  रह गया है सामाजिक कटुता को  उभार समाज का जातिवाद में
बाँट अपना उल्लू सीधा करना उद्देश्य बन गया है , देश का मान-सम्मान भी
इनकी नजर में गौण हो चुका है । ये  देश के स्वाभिमान को गिरवी रखने में
भी नहीं सरमाते । जब की इन सबका  लक्ष्य तो समाज बनाना लोगो में एक जुटता
बनाए रखना होना चाहिए । सरकार तो एक माध्यम है साध्य तो हमारा समाज ही है
। यदि इस सोच और चिन्तन के आधार पर हम काम करे तो बहुत सारी राजनीतिक और
सामाजिक बुराइयाँ दूर हो सकती हैं आओ अभी भी समय है इस और कुछ सोचें ।

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